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2 अक्टूबर अहिंसा, आमान और अमन (शान्ति) का दिन

2 अक्टूबर अहिंसा, आमान और अमन (शान्ति) का दिन

इस लेग में येरुशलम को लेकर सन् 638 और 1099, 1178 और 1182 की घटनाएं हैं जो यह बताती है कि इस्लामी शासन में दूसरे धर्म और संस्कृति रस्मों रिवाज को लेकर किस तरह गारंटी दी जाती थी। अभी इसमें बगदाद की अब्बासी और स्पेन की उमय्या ख़िलाफत में मुस्लिम शासन और उस्मानियों के शासन में ईसाईयों और यहूदियों को दी जाने वाली धार्मिक आज़ादी का ज़िक्र नहीं दिया है।

इस्लाम हुसैन
इस्लाम हुसैन

                  अक्टूबर को मध्यपूर्व के संदर्भ में शांति का दिन माना जाना चाहिए, गांधी बाबा की पैदाइश 2 अक्टूबर 1869 से 682 साल पहले 2 अक्टूबर सन् 1187 को येरुशलम में अहिंसा और शान्ति की ऐसी घटना हुई जो विगत इतिहास में कहीं नहीं मिलती और ना ही इसके बाद मिलती है।

जब 2 अक्टूबर 1187 को ईसाईयों के क्रूसेड को रोकने वाले मशहूर कमाण्डर और मिस्र और सीरिया के शासक सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने हत्तीन की फैसलाकुन जंग में 7 योरोपीय देशों की संयुक्त फौज को हराने के बाद बैतुलमुकद्दस (येरुशलम) पर आसानी से कब्जा कर लिया था।

सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी का क़ब्ज़ा होने के बाद येरुशलम की ईसाई और यहूदी जनता में दहशत थी। इसलिए कि अब उनका क्या अंजाम होगा, क्यों कि उस दौर में विजेता फौज जीते हुए इलाके में मारकाट करती है, बल्कि इसलिए भी कि ठीक 88 साल पहले सन् 1099 के क्रूसेड/ धर्म युद्ध प्रथम में योरोपीय देशों की संयुक्त ईसाई फौज ने जब सलजूकों को हराकर येरूशलम पर क़ब्ज़ा किया था तो अपनी सदियों की दुश्मनी और नफ़रत निकालने के लिए येरुशलम की पूरी मुस्लिम आबादी का क़त्ले आम कर दिया था। जिसे बाद के योरोपीय इतिहासकारों ने बग़दाद में हलाक़ू खान के क़त्लेआम के साथ सबसे क्रूर घटना माना था (मंगोल हलाकू खान ने सन् 758 में ब़ग़दाद में 15 लाख से ज़्यादा मुसलमानों का क़त्ल किया था जबकि येरूशलम को जीतने के बाद क्रूसेडरों ने बच्चों औरतों और बूढ़ों सहित 4 लाख मुसलमानों का क़त्ल किया था)

तब येरूशलम की जनता में यही ख़ौफ था। लेकिन येरूशलम जीतने के बाद सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने कोई कत्लेआम नहीं किया, शहर की जनता को आमान दे दिया, शहर की ईसाई और यहूदी जनता को बहुत कम फिदये के बदले अपने माल असबाब के साथ शहर से बाहर जाने की इजाज़त दे दी। इस तरह शहरियों के लिए आम आमान सुकून और शान्ति का कारण बना। हजारों ईसाई और यहूदी अपने माल असबाब के साथ शहर के बाहर निकले पादरी गिरजों की सोने चांदी की क़ीमती चीजें भी अपने साथ ले गए।

सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी के इस फैसले की तारीफ़ उस दौर के और बाद के सभी योरोपीय इतिहासकारों ने की थी।

सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी का येरुशलम के बाशिंदों के साथ रहमदिली के पीछे जो कारण थे उसमें खुद सुल्तान बेहद रहमदिल और इंसानियत पसंद थे, फिर इस्लामिक परम्परा में सरेंडर करने वाले और मुक़ाबला न करनेवाले दुश्मनों के साथ नरमी और रहमदिली का निर्देश है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण सन् 630 में फतेह मक्का की घटना है जब बिना किसी बड़े प्रतिरोध के पैगम्बर मुहम्मद साहब ने अपने आबादी शहर को फतेह कर लिया। उस दौरान उन्होंने सभी को आम माफी दे दी थी। जबकि मक्का के लोगों ने पैगम्बर मोहम्मद साहब और उनके अनुयायियों बहुत प्रताड़ित किया था यहां तक की उनकी हत्या करने की कोशिशें हो चुकी थीं और हर बार असफल रहने पर हत्या का एक नया अचूक प्लान बना लिया गया था, जिसके कारण उन्हें इस शहर से सन् 622 में हिजरत करके मदीना जाना पड़ा था,और इसी शहर के लोगों ने तीन बार मदीना पर चढ़ाई करके मुसलमानों को हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म करना चाहा था। इस सबमें सबसे ख़तरनाक मंजर जंगे उहद में हुआ था जिसमें उन्हें करीब करीब घेर लिया गया था, इसी जंग में वहशी, हिंदा ने पैगम्बर मुहम्मद साहब के प्यारे चचा हज़रत हम्ज़ा को धोखे से मारकर उनका कलेजा चबाया था। पैगम्बर साहब के ये वो चचा थे जिन्होंने पैगम्बर साहब का बहुत साथ दिया था जिन्हें पैगम्बर साहब बहुत चाहते थे।

इस तरह बिना मारकाट के मक्का जीतना और फिर अपने घनघोर दुश्मनों को माफ करना मुसलमानों के लिए एक नज़ीर बन गया। इसी का मुज़ाहिरा सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने येरुशलम पर फतेह के बाद किया। फिर येरुशलम में आमान देने की मिसाल ख़िलाफत के दौर में दूसरे ख़लीफा हज़रत उमर ने की भी थी। जब सन् 638 में मुस्लिम फ़ौज के घेराबंदी के बाद येरुशलम के आत्मसमर्पण हुआ था और तब ख़लीफा ने खुद शहर को आमान देकर ईसाईयों यहूदियों और अन्यों को धार्मिक और सामाजिक आजादी का अहद किया था।

लेकिन येरुशलम पर मुसलमानों का शासन ईसाईयों/रोमनों को पचा नहीं योरोप में इससे बड़ा सदमा हुआ। जबकि मुसलमानों ने ईसाईयों और यहूदियों को येरुशलम में पूरी मज़हबी आज़ादी दी थी। फिर भी योरोपीय देशों का दुख कम नहीं हुआ योरोप में फिर ईसाईयो के तीसरे जिहाद/धर्म युद्ध क्रूसेड की घोषणा हो गई ताकि फिर पवित्र भूमि येरूशलम को मुसलमानों के क़ब्ज़े से आज़ाद कराया जा सके। इस बार ब्रिटेन के किंग रिचर्ड जिसे योरोपीयन द लायन हार्ट/शेर दिल कहते थे ने धर्म युद्ध का नेतृत्व किया और वो अपनी विशाल सेना लेकर ब्रिटेन से चल पड़ा और रास्ते मे कॉन्स्टेंटिनोपल/इस्ताम्बूल के बड़े गिरजे में सामूहिक दुआ करके येरूशलम जीतने के लिए पहुंच गया।

लेकिन अपनी सुसज्जित विशाल सेना के बाद भी रिचर्ड दुबारा येरुशलम नहीं जीत सका, हालांकि उसने आसपास के बहुत से इलाके, क़िले और शहर जीत लिए थे। इस बीच रिचर्ड बीमार भी पड़ा जिसके इलाज के लिए सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने अपना खास हकीम भेजकर उसका इलाज करवाकर ठीक कराया।
कई कोशिशों के बाद भी जब रिचर्ड शेर दिल सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी से येरुशलम वापस नहीं ले सका तो समझौता करने पर मजबूर हुआ । यहां पर भी हज़रत उमर के वक्त मुसलमानों का अपर हैंड होने पर भी सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने रिचर्ड के साथ जो समझौता किया उसमें पहले के हज़रत उमर के अहद की तरह इस समझौते में भी ईसाईयों और यहूदियों को धार्मिक आज़ादी की गारंटी दी गई और बाहर से आने वाले जायरीन/श्रद्धालुओं की सुरक्षा और सुविधा देने की बात थी।

ईसाई येरूशलम को लेकर इतने उन्मादी क्यों हो गए कि उन्होंने येरूशलम को मुस्लिम कब्जे के मुक्ता कराने के लिए 300 साल से ज़्यादा धर्म युद्ध लड़े ?

इसकी हैरतअंगेज पसमंजर/पृष्ठभूमि है।

मध्य पूर्व में इस्लाम के आने से पहले येरूशलम को लेकर रोमनों/ईसाईयों और यहूदियों में बहुत खून खराबा हो चुका था।

यहूदियों का पहला मंदिर लगभग 587 ईसा पूर्व में येरूशलेम की बेबीलोनियन घेराबंदी के दौरान तबाह हो गया था और दूसरा मंदिर 70 ईसा पूर्व में यरूशलेम की रोमनों की घेराबंदी के दौरान ख़त्म हो चुका था। यहूदियों को वहां से भगाया जा चुका था।

इस्लाम से पहले दो सुपर पावर रोमन और फारस/ईरान थीं, जिनमें पिछले सैकड़ों सालों से सैकड़ों जंग हो चुकी थीं। एक दूसरे के राजाओं को कैद करके बेइज्जत किया जा चुका था। चूंकि अरब का इलाका दोनों सुपर पावर के बीच में था इसलिए दोनों के ज़्यादातर युद्ध अरब खित्तों में होते थे। रोमन/ईसाईयों का गढ़ कॉन्स्टेंटिनोपल के बाद सीरिया और येरूशलम थे।

इस्लाम के शुरुआती दौर में पैगम्बर मुहम्मद साहब ने ईरानी और रोमन बादशाहों को शान्ति के पैगाम भेजे थे, जिसे दोनों बादशाहों ने उपहास और घमंड से रद्द कर दिया क्योंकि दोनों सुपर पावर के सामने अरब के इस नवगठित रियासत संसाधनों के लेहाज़ से कुछ भी नहीं था। क्योंकि फतेह मक्का के लिए मुस्लिम लश्कर 10000 नफरी का था जो पूरी तरह से मुसल्लाह भी नहीं था। जिस तरह बद्र की पहली लड़ाई में 313 का लश्कर बिना साजो सामान का था लेकिन फतेह साजो सामान से नहीं सीधे रास्ते और हौसले से आती है, फतेह मक्का की भी यही सीख थी।

जल्दी ही दोनों सुपर पावर की आंखों में छोटा सा इस्लामी स्टेट चुभने लगा।

सन् 632 में पैगंबर मोहम्मद साहब के पर्दा करने के बाद पहले ख़लीफा हज़रत अबू बकर की ख़िलाफत में मुसलमानों को बाहरी रोमनों और मुनाफ़िक़ अंदरूनी दुश्मनों से लड़ना पड़ा। उनके बाद हज़रत उमर के वक्त यही हाल रहा, बाहरी दुश्मन मुसलमानों को हर हाल में मिटाने पर तुले हुए थे। लेकिन तब तक अरब में सामूहिकता और राष्ट्रवाद की मजबूती से मुस्लिम एकजुट होते गए।

रोमन जब हमलावर हुए तो इस्लामी शासन ने रक्षात्मक लड़ाई की जगह सुरक्षात्मक लड़ाई शुरू की, पहले तो अरब की सीमाओं पर बढ़ती फौजों का मुक़ाबला किया फिर उन गढ़ों पर हमला किया जहां पर बैठ कर रोमन अरब पर हमलावर होते थे। यरमूक की फैसलाकुन जंग में चौथाई सेना वाली मुस्लिम फ़ौज द्वारा रोमनों को हराने के बाद इस्लामी सेना ने रोमनों के महत्वपूर्ण गढ़ येरूशलम का मुहासरा कर लिया। येरूशलम के ईसाई हुक्मरान ने मुस्लिम फ़ौज के आगे सरेंडर करने के लिए मुसलमानों के खलीफ़ा हज़रत उमर को बुलाने की शर्त रखी, हज़रत उमर मदीना से बैतुल मुक़द्दस गए और शहर की कुंजी लेने के साथ एक सुलह/अहदनामा घोषणा पत्र बनाया जिसमें हज़रत उमर ने शहर वासियों को आमान दिया जिसे ज़ाम्बिया का अहद कहा जाता है इस और उन्होंने शहरियों को उनके धर्मों रस्मों और रहने सहने की आज़ादी दी थी।

येरुशलम पर मुसलमानों का कब्ज़ा हो गया और लोग वहां शांति से रहने लगे। लेकिन ईसाई जगत येरुशलम पर मुसलमानों का शासन/अधिकार पचा नहीं सके। मुसलमानों ने अपने शासन में सीरिया और येरुशलम में रहने वाले अल्पसंख्यकों के हुकूमत का पूरा तहफ़्फ़ुज़ किया मुस्लिम शासकों ने सन् 638 में किए गए अहदनामें को 1099 तक यानि 651 तक माना और अपने अल्पसंख्यकों को अपने धर्म और संस्कृति की आज़ादी दी।

उस समय योरोपीय देशों में एका नहीं था आपसी लड़ाईयां और उत्तरी जनजातियों हमले बहुत थे, फिर चर्च और राजाओं के बीच बहुत झगड़े थे, 1077 वाइकिंग हमलावरों के खत्म होने के बाद चर्च का प्रभाव राजसत्ता के ऊपर बढ़ाने के लिए पोप ने 1095 में पवित्र भूमि येरूशलम को मुसलमानों से वापस लेने के लिए धर्म युद्ध/क्रूसेड के लिए योरोप के मुल्कों को एकजुट कर लिया।

योरोपीय देशों की संयुक्त फौजें गाडफ्रे बाईवोलोन Godfrey bouillon के नेतृत्व में पहले क्रूसेड धर्म युद्ध के लिए 1099 में अरब में घुस गईं, उस समय येरुशलम और सीरीया में मुस्लिम सलजूकों की अमलदारी थी क्रूसेडर जोश और पूरी तैयारी से आए थे इधर मुस्लिम रजवाड़ों में आज की तरह मुनाफ़िक़ों की तादाद ज्यादा थी।
कम तैयारी, एकजुटता की कमी और दुश्मनों का एक मक़सद को लेकर इतनी दूर से आना काम कर गया। येरुशलम पर ईसाइयों का कब्ज़ा हो गया। और तब क्रूसेडरों ने येरुशलम के मुस्लिम आबादी का क़त्ले आम कर दिया और मस्जिद अक्सा की बेहुरमती की। जिससे मुस्लिम दुनिया में गुस्सा और बेचैनी हो गई फिर ईसाईयों ने हज के रूट पर कब्जा करके मनमर्जी और लूट शुरू कर दी थी।

लेकिन 2 अक्टूबर 1187 को येरुशलम जीतने के बाद सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने शहरवासियों को आमान देकर इलाके में अमन क़ायम करने का महत्वपूर्ण काम किया। फिर 1182 में वो समझौता किया जो पहली जंगे अज़ीम/विश्व युद्ध तक चलता रहा। यही वो फांस है जो योरोपीय देशों चुभती रही जिसका बदला उन्होंने पहले विश्व युद्ध के फिलिस्तीन में यहूदियों को बसाकर लिया और आज तक दुश्मनी निकाल रहे हैं।

आज गांधी जी के जन्मदिन पर यह बात बताना इसलिए भी ज़रूरी है कि गांधी जी फिलिस्तीनियों के अपने होम लैंड के जबरदस्त पैरोकार थे और उन्होंने यहूदियों पर हुए अत्याचार पर पूरी सहानुभूति दिखाते हुए भी यहूदियों के फिलिस्तीन पर कब्जे और देश बनाने के दावे को अस्वीकार किया था।

बहुत से लोग यह सवाल करते रहे कि क्या इस्लामी व्यवस्था में धर्मनिरपेक्षता या दूसरे धर्मों के लिए धार्मिक आज़ादी होती है ?

मैं उन्हें इंडोनेशिया और मलेशिया का उदाहरण और मौजूदा अरब देशों में दी जाने वाली धार्मिक सुरक्षा का उदाहरण दे सकता था लेकिन यह बताना ज़रूरी था कि यह परम्परा इस्लामिक परम्परा में शुरू से शामिल रही है।

इस लेग में येरुशलम को लेकर सन् 638 और 1099, 1178 और 1182 की घटनाएं हैं जो यह बताती है कि इस्लामी शासन में दूसरे धर्म और संस्कृति रस्मों रिवाज को लेकर किस तरह गारंटी दी जाती थी। अभी इसमें बगदाद की अब्बासी और स्पेन की उमय्या ख़िलाफत में मुस्लिम शासन और उस्मानियों के शासन में ईसाईयों और यहूदियों को दी जाने वाली धार्मिक आज़ादी का ज़िक्र नहीं दिया है।

इस्लाम हुसैन

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