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मुस्लिम लीडरशिप को लेकर सुखबीर सिंह बादल ने दिखा दिया मुस्लिम नेताओं को आईना

मुसलमानों में राजनीतिक तौर पर एकजुटता की हकीकत में बहुत कमी है वह राजनीतिक तौर पर बंटे हुए हैं और इसकी वजह अधिकतर मुस्लिम नेता हैं क्योंकि वह चुनाव के वक्त मुसलमानों को ऐसे ऐसे ख्वाब दिखाकर उनका वोट तितर -बितर ही करने का प्रयास करते हैं कि जो ख्वाब कभी पूरे नहीं हो पाए और वह ख्वाब ही बनकर रह जाते हैं क्योंकि अधिकतर मुस्लिम नेताओं का मकसद सिर्फ चुनाव के समय मुस्लिम समुदाय के वोट हासिल कर अपनी राजनीतिक नैया को पार लगाना होता है.

शिब्ली रामपुरी

शिरोमणी अकाली दल (शिअद) के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने मुस्लिम नेतृत्व को लेकर जो कहा है वह पूरी तरह से सही है और मुस्लिम नेताओं को उन्होंने एक तरीके से आईना दिखाने का काम किया है. उनकी यह बात कुछ मुस्लिम नेताओं को बुरी लग सकती है लेकिन यह हकीकत है कि राजनीतिक नेतृत्व मज़बूत ना होने की वजह से देश के मुसलमानों को समय-समय पर भारी कठिनाइयों के दौर से गुजरना पड़ता है.
मुसलमानों के सहारे अपनी राजनीतिक नैया पार लगाने वाले अधिकतर नेता भले ही मुसलमानों की बदहाली के लिए भाजपा या किसी और पार्टी को जिम्मेदार बताएं या फिर कुछ और कमी बताएं लेकिन हकीकत यह है की सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों को मुस्लिम नेताओं के कारण ही उठाना पड़ा है और यह एक कड़वी हकीकत है.

सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि देश में मुसलमानों की आबादी लगभग 18 फीसदी है लेकिन उनके पास कोई नेतृत्व नहीं है क्योंकि वे एकजुट नहीं हैं… हम दो फीसदी हैं लेकिन हम श्री अकाल तख्त साहिब के तहत एकजुट हैं। सुखबीर सिंह बादल ने यहां तक कहा कि देश में मुसलमानों की इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद भी कहीं पर उनका कोई राजनीतिक नेतृत्व नहीं है और उनमें एकजुटता की काफी कमी है मुस्लिम लीडरशिप मजबूत न होने के कारण उनको कई तरह की परेशानियां दिक्कतों का सामना करना पड़ता रहा है.
मुस्लिम नेतृत्व राजनीतिक तौर पर बेहद कमजोर है यह सभी जानते हैं लेकिन जहां तक एकजुटता की बात है तो मुसलमानों में राजनीतिक तौर पर एकजुटता की हकीकत में बहुत कमी है वह राजनीतिक तौर पर बंटे हुए हैं और इसकी वजह अधिकतर मुस्लिम नेता हैं क्योंकि वह चुनाव के वक्त मुसलमानों को ऐसे ऐसे ख्वाब दिखाकर उनका वोट तितर -बितर ही करने का प्रयास करते हैं कि जो ख्वाब कभी पूरे नहीं हो पाए और वह ख्वाब ही बनकर रह जाते हैं क्योंकि अधिकतर मुस्लिम नेताओं का मकसद सिर्फ चुनाव के समय मुस्लिम समुदाय के वोट हासिल कर अपनी राजनीतिक नैया को पार लगाना होता है. यदि हम गंभीरता से गौर करें तो आजादी से लेकर आज तक यही सिलसिला मुसलमानों के साथ चल रहा है और न जाने कब तक यह इसी तरह चलता रहेगा कभी बीजेपी के नाम पर उनको गुमराह किया जाता है कभी कांग्रेस के नाम पर उनको कुछ बताया जाता है कभी किसी पार्टी को उनका राजनीतिक हमदर्द बताया जाता है तो कभी किसी पार्टी को उनका राजनीतिक विरोधी बता दिया जाता है.

राजनीतिक तौर पर मुसलमानों की एक बड़ी बदहाली का कारण हमारे उलेमा का भी राजनीतिक पार्टियों के प्रति बदलता नजरिया है या फिर कहिए कि वह जिस तरह से राजनीतिक पार्टियों के लिए कई बार कार्य करते नजर आते हैं उनके हक में आवाज उठाते नजर आते हैं उससे भी मुस्लिम नेतृत्व राजनीतिक तौर पर कमजोर रहा है. अक्सर चुनाव के वक्त कुछ उलेमा कभी इस पार्टी कभी उस पार्टी तो कोई इस पार्टी कोई उसे पार्टी की हिमायत और विरोध करने लगते हैं और उलेमा की बात को मुसलमानों में काफी महत्वपूर्ण माना जाता है जिसके कारण कई बार मुस्लिम ये सोचने पर मजबूर हो जाता है कि आखिर वह राजनीतिक तौर पर किसका चुनाव करे? जब इस तरह की कशमाकश भरी स्थिति होगी तो राजनीतिक नेतृत्व कैसे मजबूत हो सकता है?

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