हिंदुत्व की राजनीति और पिछड़ा वर्ग
- हिंदुत्व की राजनीति और पिछड़ा वर्ग
डॉक्टर जे उस्मानी
वीपी सिंह सरकार में जब मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा की तो ओबीसी राजनीति की काट के तौर पर मंडल के मुकाबला भाजपा ने कमंडल यानी हिंदुत्व की राजनीति को हवा दे दी और और नतीजा आज भाजपा देश की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति बन चुकी है और पिछड़ों के अधिकार व आवाज हिंदुत्व की राजनीति में दब कर रह गई! अब इसी हिंदुत्व की राजनीति से निपटने के लिए विपक्षी दल फिर मंडल यानी पिछड़े और अति पिछड़े के अधिकारों जो धर्म की राजनीति में काफी पीछे छूट गए थे फिर एक बार प्रमुखता के साथ लेकर आ रहे हैं
अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के समय ही बिहार से एक बड़ी जवाबी राजनीतिक पहल शुरू होती दिख रही है। 21 से 24 जनवरी तक समस्तीपुर के कर्पूरी ग्राम (पुराना नाम पिटौंझिया) में पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की 101वीं जयंती मनाने के साथ ही कुछ बड़े आयोजनों के जरिए जाति जनगणना के नतीजों और पिछड़ा आरक्षण के बदले स्वरूप पर राज्यव्यापी चर्चा कराने की योजना है। पिछड़ा गोलबंदी की जो बड़ी कोशिश बीच में पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव के दौरान छूट सी गई थी, उसी टूटे तार को अब फिर से जोड़ा जा रहा है।
नीतीश सरकार ने पिछली गांधी जयंती (2 अक्टूबर, 2023) को जाति जनगणना के नतीजों की घोषणा की थी, जिसमें पिछड़ों और अति पिछड़ों के साथ ही दलितों का प्रतिशत भी अनुमान से ज्यादा पाया गया था। उसी के आधार पर नवंबर, 2023 में बिहार मंत्रिमंडल ने जाति आधारित आरक्षण को 65 फीसदी, और EWS आरक्षण को मिलाकर 75 फीसदी करने का फैसला लिया था।
अभी बिहार में गठबंधन दलों के इस नए प्रयास के तुरंत बाद 25 जनवरी को राहुल गांधी की न्याय यात्रा बिहार में प्रवेश करेगी। देखना है कि राहुल गांधी JDU, RJD और लेफ्ट की इस साझा मुहिम के साथ कांग्रेस को किस हद तक जोड़ पाते हैं। इससे ही तय होगा कि ‘कमंडल राजनीति’ के मुकाबले I.N.D.I.A. कोई जवाबी ‘मंडल मुहिम’ शुरू कर पाएगा या नहीं।
बताया जा रहा है कि ममता बनर्जी ऐसी किसी भी योजना से सहमत नहीं हैं। लेकिन आम चुनाव में विपक्ष कुछ दम से खड़ा दिखे, इसकी जरूरी शर्त के रूप में I.N.D.I.A. के सारे घटक दल अलग-अलग स्तरों पर इससे सहमति जता सकते हैं।
गौरतलब है कि बिहार में मंडल आयोग को कर्पूरी फॉर्म्यूले के साथ अमल में उतारा गया है। सामाजिक न्याय का निहितार्थ केवल ताकतवर पिछड़ों की दावेदारी नहीं है, कम से कम बिहार में यह सुनिश्चित करने में कर्पूरी फॉर्म्यूले ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। लेकिन यह क्या है, और इसकी शुरुआत कैसे हुई, यह जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा। बिहार में एक बार छह महीने और दूसरी बार लगभग दो साल मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर समाज के बहुत कमजोर हिस्से से आए एक आदर्शवादी राजनेता थे। अपनी सरकार गिरना तय जानकर भी उन्होंने पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के अलावा महिलाओं को भी सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण देने की व्यवस्था की थी।
जननायक कर्पूरी (24 जनवरी 1924-17 फरवरी 1988) ने अपने जीवन अनुभव को ध्यान में रखते हुए अति पिछड़ों को पिछड़ों से अलग करके देखा। जाहिर है, इसके पीछे उनकी सोच वोट बैंक की नहीं, न्याय की थी।
1971 में थोड़े समय के लिए मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने सामाजिक पिछड़ेपन का निर्धारण करने के लिए मुंगेरीलाल आयोग का गठन किया था, जिसने 1976 में अपनी रिपोर्ट दी। फिर 1978 में बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने इसकी अनुशंसाओं पर अमल करके भी दिखा दिया। इसमें पिछड़ों को 8 प्रतिशत और अति पिछड़ों को 12 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। यानी अति पिछड़ी, या ‘प्रजा जातियों’ के लिए पिछड़ों की तुलना में डेढ़ गुना आरक्षण।
इसके अगले साल, 1979 में केंद्र की जनता पार्टी सरकार में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने बिहार के ही एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल के नेतृत्व में इसी काम के लिए ‘मंडल आयोग’ का गठन किया, जिसकी अनुशंसाओं को प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1990 में लागू किया। कमाल यह कि मंडल अनुशंसाओं में पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग जैसी दो श्रेणियों की जरूरत ही नहीं महसूस की गई थी।
इसके तहत कुल पिछड़ा आरक्षण 27 फीसदी घोषित किया गया, जो मुंगेरीलाल आयोग द्वारा अनुशंसित पिछड़ा, अति पिछड़ा, महिला और विकलांग के समेकित 24 प्रतिशत से ज्यादा था, लेकिन अति पिछड़ों तक इसके पहुंचने की संभावना नगण्य थी। अति पिछड़ा जैसी कोई अलग श्रेणी ही मंडल में में न होने के चलते शुरू में बिहार के इस श्रेणी वाले पिछड़ों का बहुत नुकसान होता दिखा। नतीजा यह कि कर्पूरी ठाकुर की विरासत के चलते ही वहां मंडल के भीतर कर्पूरी फॉर्म्यूले की व्यवस्था बनाई गई।
अभी बीते नवंबर में आरक्षण का जो नया खाका बिहार में अपनाया गया है, उसमें भी सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अति पिछड़ों के लिए 25 प्रतिशत और पिछड़ों के लिए 18 प्रतिशत सीटों का प्रावधान है। यह फॉर्म्यूला पूरे देश के लिए समता का अचूक औजार बन जाएगा, ऐसा दावा तो खैर कोई नहीं करेगा।
खासकर यह देखते हुए कि सरकारी नौकरियां ही अभी बहुत कम बची हैं और बहुत खराब कामकाजी शर्तों के साथ ठेके पर काम कराने का चलन सारे ही सरकारी विभागों में चल पड़ा है। लेकिन नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का मुद्दा गरम रहने से सरकारों को समाज के बारे में कुछ तो सोचना ही पड़ेगा।
पिछले कुछ सालों में राहुल गांधी की ख्याति राष्ट्रीय स्तर पर असुविधाजनक सवाल उठाने वाले राजनेता की रही है। कर्पूरी फॉर्म्यूले वाले सामाजिक न्याय का मुद्दा उठाकर वह देश के कमजोर तबकों का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन इसमें कितनी सफलता मिलेगी, यह तो वक्त ही बताएगा